नई दिल्ली । बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) और नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) का रिश्ता टूट चुका हैं। चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने दावा किया है कि नीतीश ने भाजपा के साथ जाने के सभी दरवाजे बंद नहीं किए हैं। उन्होंने अपने इस दावे के लिए राज्यसभा के उपसभापति पद का सहारा लिया। उन्होंने कहा कि अगर उनका एनडीए से रिश्ता टूट चुका है, तो वह राज्यसभा उप-सभापति हरिवंश नारायण सिंह से इस्तीफा देने को क्यों नहीं कहते। 
दूसरी ओर, नीतीश इस मुद्दे पर उल्टा प्रशांत किशोर को घेर रहे हैं। नीतीश कुमार ने कहा कि प्रशांत किशोर अपनी छवि चमकाने केलिए कुछ भी बोल सकते हैं। उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। उन्हें गंभीरता से लेने की एक गलती मैं भी कर चुका हूं। प्रशांत किशोर ने जो सवाल उठाया है, वैसी ही एक स्थिति आज से 14 साल पहले हो चुकी है, जब 2008 में भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील को लेकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार में तनातनी शुरू हो गई थी। 
नौबत यहां तक आ गई कि वाम दल ने 9 जुलाई को डील के खिलाफ विरोध में सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। 2004 में बनी सरकार में वाम नेता सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष थे। खास बात है कि वह लोकसभा अध्यक्ष बनने वाले पहले कम्युनिस्ट सांसद थे। तब 21 जुलाई को लोकसभा का दो दिवसीय विशेष सत्र बुलाया गया। सीपीएम चाहती थी कि चटर्जी सत्र से पहले पद छोड़ दें। पार्टी दिग्गज ज्योति बसु ने भी उन्हें इस्तीफा देने के संकेत दिए थे, लेकिन चटर्जी पार्टी के खिलाफ जाकर पद पर बने रहे। उनका मानना था कि वह पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर हैं। 
नतीजा हुआ कि उनकी अध्यक्षता में ही लोकसभा का विशेष सत्र आयोजित किया गया। बाद में वाम दल की तरफ से बयान जारी किया गया, जिसमें वरिष्ठ नेता को पार्टी से बाहर करने की जानकारी दी गई। हरिवंश नारायण सिंह को लेकर जदयू का कहना है कि भले ही वह एनडीए के साथ नहीं हैं, लेकिन इसके चलते राज्यसभा सांसद को 'संवैधानिक' पद छोड़ने की जरूरत नहीं है। पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी और राज्य मंत्री मदान साहनी ने कहा था, हम किसी भी हाल में भाजपा के साथ नहीं जाने वाले हैं। उन्हें क्या परेशानी है? वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से अपनी ही मन की बात चला रहे हैं।