कोटा से 20 किलोमीटर दूरी पर स्थित डाढ़ देवी मंदिर रियासत कालीन दसवीं शताब्दी के समय से पहले का माता का मंदिर है. ये माता का मंदिर कोटा के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक है, जहां माता घने जंगलों के बीचों-बीच विराजमान हैं. दोनों नवरात्रों पर यहां पर 9 दिनों तक मेला लगता है. लाखों श्रद्धालु कोटा ही नहीं, काफी दूर-दराज से यहां मनोकामना लेकर आते हैं.

पूजा के समय यहां दागी जाती थी तोप
कोटा में हाड़ाओ के शासनकाल के समय महाराव उम्मेद सिंह द्वितीय के शासनकाल में देवी के पूजन के लिए पंचमी के दिन हाड़ा शासक आसपास के जागीरदारों के साथ छोटी सवारी के रूप में आते थे और मंदिर परिसर में दरी खाने का भी आयोजन होता था. यहां पूजन के समय तोप दागी जाती थी.

इतिहासकार फिरोज अहमद ने बताया कि डाढ़ देवी मंदिर का निर्माण 10 वीं शताब्दी में कैथून के तंवर क्षत्रियों के द्वारा किया गया था. डाढ़ देवी वास्तव में रक्त दंतिका देवी हैं, क्योंकि देवी की डाढ़ बाहर निकली हुई है. इस कारण लोगों ने देवी का नाम डाढ़ देवी कर दिया और मंदिर इसी नाम से विख्यात हो गया.

पूर्व राज परिवार करते थे मां की आराधना
राव माधव सिंह म्यूजियम ट्रस्ट के क्यूरेटर पंडित आशुतोष दाधीच ने लोकल 18 को बताया कि डाढ़ देवी माता मंदिर पj वरात्र की पंचमी के दिन पूर्व महाराव इज्यराज सिंह और उनके पुत्र के साथ डाढ़ देवी माता मंदिर में माता की पूजा अर्चना करते है. रियासत कालीन परंपरा के तहत माता की अर्चना के साथ पोशाक धारण करवाकर रियासत कालीन परंपरा का निर्वहन किया जाता था. साथ ही हाडोती के लोगों के लिए शुभ समृद्धि खुशहाली की माताजी से कामना की जाती थी.

खेतों में छिड़काव करने पर नहीं लगता है रोग
इस मंदिर परिसर के अंदर एक पवित्र कुंड भी मौजूद है, जिसके पानी से स्नान करने से अनेक रोग दूर हो जाते हैं. वहीं आसपास के गांव के लोग मंदिर के पानी को भरकर अपने खेतों में छिड़काव करते थे, जिससे फसलों में रोग नहीं लगता था.