'प्रभात' का कभी 'सूर्यास्त' नहीं हो सकता
स्वर्गीय प्रभात झा के व्यक्तित्व पर लोकेंद्र पाराशर की शब्दांजलि
ख़बरमंत्री न्यूज़ नेटवर्क
मनुष्य जब अस्तित्व में आता है, तो उसकी प्रारंभिक पहचान उसकी देह से होती है। सामान्य व्यक्ति इसी देह के साथ ही एक दिन समाप्त भी हो जाता है। लेकिन समाज में कुछ ऐसे लोग भी जन्म लेते हैं, जिन्हें उनकी देह से नहीं दैदीव्यता से पहचाना जाता है। ऐसे ही मनुष्य को असाधारण, विलक्षण, प्रखर, प्रतापी, विचारवान, दयावान, निर्णायक, परिश्रमी जैसे शब्दों से अलंकृत किया जाता है।
आदरणीय प्रभात झा जी के जीवन काल को हम देखें तो ध्यान में आता है कि उन्होंने सब बातों की चिंता करते हुए यदि किसी एक चीज की चिंता नहीं की तो, वह उनकी देह ही थी। देह से पूर्णत: विरक्त रहकर रक्त-रक्त को परिश्रम की पराकाष्ठा में लगा देना ही प्रभात जी की पहचान थी। बिहार से चलकर मुंबई और ग्वालियर आगमन की यात्रा को जिन लोगों ने देखा, उन्होंने प्रभात जी को एक अभाव में पलने वाले 'प्रभाव' के रूप में ही देखा।
मेरा उनका परिचय 1984 में उस समय हुआ जब माननीय अटल जी ग्वालियर से श्री माधवराव सिंधिया जी के विरुद्ध चुनाव मैदान में थे। एक सभा के मंच के समीप ही उन्होंने मुझे पूछा ''मुझे जानते हो?'' मैंने कहा नहीं तो...। वे मुझे पास की दुकान में मौसम्बी रस पिलाने ले गए, वहीं पूरा परिचय दिया। मैं भौंचक्का था, कारण का उल्लेख करना समचीनी नहीं है, बस इतना समझ लीजिए कि मैं उनके नाम को लेकर दुराग्रही था। लेकिन उस पहले परिचय के बाद उन्होंने जिस आत्मीयता के साथ मुझे भाजपा के संभागीय कार्यालय मुखर्जी भवन में आवास उपलब्ध कराने से लेकर पढ़ाई-लिखाई तक की चिंता की, उसने तो मुझे अंदर तक ग्लानि से भर दिया। ''मैं क्या सोचता था और वो क्या निकले।''
समय बीतता गया और बताता गया कि प्रभात जी यानि परिश्रम, प्रभात जी यानि पकड़, प्रभात जी यानि स्मरण शक्ति, प्रभात जी यानि वैचारिक स्पष्टता, प्रभात जी यानि प्रखरता और प्रभात जी यानि अपार संभावना का रास्ता। हुआ भी यही। प्रभात जी के साथ 'स्वदेश' में कार्य करने का कुछ वर्ष अनुभव रहा। सारा आभा मण्डल प्रभात जी के इर्दगिर्द ही डोलता था। एक समय था जब स्वदेश यानि प्रभात जी थे और प्रभात जी यानि स्वदेश था। रामजन्म भूमि आन्दोलन में मैंने उनकी पत्रकारिता और प्रतिबद्धता को बहुत गहरे से देखा। ग्वालियर का ऐसा कोई गली मोहल्ला नहीं था, जिसके किसी न किसी परिवार से प्रभात जी का टिफिन न आता हो। लोग पूछते थे प्रभात जी का परिवार नहीं है क्या? दरअसल उनका परिवार भी था। भाभी को वर्षों तक समझ ही नहीं आया कि पति मिला है या संन्यासी। खैर! जीवछ और बऊआ नामक बेटों के आने के बाद भी कभी किसी ने यह नहीं देखा कि प्रभात जी पण्डित जी (वे भाभी को पण्डित जी ही कहते थे) के साथ बाजार गए हैं या बेटों को किसी उद्यान की सैर करा रहे हैं।
कुल मिलाकर परिवार की जिम्मेदारी से लगभग विरक्त रहकर उन्होंने अपनी यात्रा को समष्टि के लिए इस कदर आगे बढ़ाया कि विचार ने उन्हें भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश का पहला मीडिया प्रभारी बनाया। बाद में वे राष्ट्रीय पदाधिकारी, सांसद और प्रदेश अध्यक्ष भी बने। वे जहां रहे, वहां अपने कृतित्व की सुगंध छोड़ते चले गए। आज भी स्वदेश की बात आए तो प्रभात जी की बात होती है। भाजपा कार्यालय में आज भी उनके उल्लेख के बिना राजनैतिक कौशल पर चर्चा पूरी नहीं हो पाती है। मैं सात वर्षों से अधिक भाजपा का प्रदेश मीडिया प्रभारी रहा, लेकिन मैंने यह अनुभव किया कि इस विभाग पर आज भी सिर्फ प्रभात जी की ही छाप है। यह देखकर मुझे सदैव आनंद ही रहा, क्योंकि वे मेरे पत्रकारिता काल के योग्य अग्रज रहे थे।
प्रभात जी हमारे बीच देह से भले नहीं हैं, लेकिन उनके प्राण तत्व की प्रतिष्ठा ऐसी है कि वह पग-पग पर परामर्श देती रहेगी। उनके व्यक्तित्व के पीछे केवल और केवल उनकी वैचारिक स्पष्टता और उस पर चलने की बेजोड़ कर्मठता थी। शब्दों की मर्यादाएं ऐसी हैं कि वह प्रभात जी के कृतित्व को समेट ही नहीं सकती। आज हमने अपना नक्षत्र खोया तो है, लेकिन केवल शरीर से खोया है, उनका शरीर निसंदेह अधिक परिश्रम की भेंट चढ़ा है। वरना इतनी जल्दी जाते ही नहीं। प्रभात जी हमें जो देकर गए हैं वह प्रेरणा अविनाशी है। उन्होने जो दिया है, उसके लिए असंख्य कार्यकर्ता अनंत काल तक कृतज्ञ रहेंगे। क्योंकि 'प्रभात' का कभी 'सूर्यास्त' नहीं हो सकता।
(लेखक भाजपा मप्र के प्रदेश मंत्री हैं)