पार्क प्रबंधन गंभीरता दिखाता, तो बच जाती शावकों की जान
भोपाल । प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में तीन शावकों की मौत को लेकर वन्य प्राणी विशेषज्ञों का कहना है कि पार्क प्रबंधन मामले में यदि गंभीरता दिखाता, तो शायद शावकों की जान बच जाती। विशेषज्ञा का कहना है कि पार्क में तीन चीता शावकों की मौत को केंद्र और राज्य के वन अधिकारियों में चीता परियोजना को लेकर चल रही अंतर्कलह व प्रबंधन की लापरवाही का ही परिणाम माना जाएगा। हालांकि ज्वाला के चौथे शावक की हालत में अब सुधार देखने को मिल रहा है। उसे 24 मई को बाड़े से निकालकर चीतों के लिए पार्क में बनाए गए अस्पताल में एसी वाले कक्ष में रखा है। उसे लगातार ड्रिप लगाई जा रही है। बकरी का दूध पिलाया जा रहा है। राजधानी के वन्यप्राणी विशेषज्ञ अजय दुबे कहते हैं कि डेढ़ माह में तीन युवा चीतों की मौत के बाद पार्क प्रबंधन गंभीरता दिखाता, तो शावकों की जान बचाई जा सकती थी। इनकी मौत ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। उधर, चीता परियोजना संचालन समिति बनाकर राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के अधिकारियों ने उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के उन सदस्यों को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया, जो चीतों को दूसरे स्थान पर शिफ्ट करने की मांग करने वालों का साथ दे रहे थे। दुबे सवाल करते हैं कि वन अधिकारियों को यह पहले से पता था कि ज्वाला (सियाया) पहली बार मां बनी है, उसे शावकों को पालने का अनुभव नहीं है तो शावकों की देखरेख में अतिरिक्त सावधानी बरती जानी थी। दूर से निगाह रखने के साथ बीच-बीच में नजदीक से देखने की कोशिश भी करनी थी। इससे शावकों के जिंदा रहते हुए पता चल जाता कि वह कमजोर (कम वजन के) हैं। यह बात पहले से पता होती, तो उन्हें बचाने का प्रबंधन भी संभव था। जब हीट वेव को शावकों की मौत का कारण बताया जा रहा है तो शावकों को लपट से बचाने के लिए छांव का ठीक वैसे प्रबंध किया जा सकता था, जैसे 17 सितंबर 2022 को किया गया था। तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लकड़ी के बाक्स (पिंजरों) से चीतों का क्वारंटाइन बाड़े में छोड़ने आए थे। इन बाड़ों में घास की झोंपड़ी बनाई गई थीं। चीता परियोजना से जुड़े एक अन्य विशेषज्ञ बताते हैं कि शावकों की मौत स्थानीय प्रबंधन की विशुद्ध लापरवाही है। हमें चीतों का वंश बढ़ाना है। ऐसे में भारत की धरती पर पैदा होने वाले इन शावकों का रोज वजन लिया जा सकता था। चार पशु चिकित्सक हैं, ड्रिप चढ़ाते। वे कहते हैं कि 80 से 90 प्रतिशत मृत्युदर की बात की जा रही है, तो यह खुले जंगल में होता है, बाड़े में नहीं। जहां 24 घंटे कैमरों से निगरानी की जा रही हो, वहां इतनी मृत्युदर बताना तो नाकामी छिपाने का बहाना है। बड़े बाड़े में शावकों को रखने में कोई कठिनाई आ रही थी, तो मां के साथ उन्हें छोटे बाड़े में कुछ समय के लिए शिफ्ट कर देते। वहां तापमान में कुछ कमी लाने के भी प्रयास किए जा सकते थे। वे कहते हैं कि ज्वाला के साथ तो छोटे बाड़े में ले जाना का कोई मुद्दा ही नहीं था, वह कैद में रहकर ही पली-बढ़ी है। उसे छुआ भी जा सकता है। वे कहते हैं कि मां अनुभवी होती है तो गर्मी बढ़ने पर शावकों को पानी के किनारे और पेड़ों की छांव में ले जाती है।