सनातन धर्म में 16 दिन पूर्वजों के लिए माने जाते हैं। मान्यता है कि अगर पितरों की आत्मा को मोक्ष नहीं मिला है, तो उनकी आत्मा भटकती रहती है। इससे उनकी संतानों के जीवन में भी कई बाधाएं आती हैं, इसलिए पितरों का पिंडदान जरूरी माना गया है।
हिंदू धर्म में पितृपक्ष के दौरान पिंडदान किया जाता है। इस समय अपने पितरों को याद कर उनके नाम पर पिंडदान होता है। पिंडदान के लिए गया में फल्गु नदी के तट को सबसे अच्छा माना जाता है। यहां पिंडदान की प्रक्रिया पुनपुन नदी के किनारे से प्रारंभ होती है। कहा जाता है कि गया में पहले अलग-अलग नामों की 360 वेदियां थी, जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची है। वर्तमान समय में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं। यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है। इसके अतिरिक्त वैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिंडदान के लिए प्रमुख हैं। आइए आपको बताते हैं कि पिंडदान को हिंदू धर्म में जरूरी क्यों माना गया है और इसकी सही हिंदू मान्यता के अनुसार किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड माना गया है। पिंडदान के समय मृतक की आत्मा को अर्पित करने के लिए जौ या चावल के आटे को गूंथकर बनाई गई गोलात्ति को पिंड कहते हैं। 
श्राद्ध की मुख्य विधि 
श्राद्ध की मुख्य विधि में मुख्य रूप से काम होते हैं- पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोज। दक्षिणाविमुख होकर आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्घा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है। जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलाकर उससे विधिपूर्वक तर्पण किया जाता है। मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं। इसके बाद ब्राह्मण भोज कराया जाता है। 
पितरों का स्थान
पंडों के मुताबिक, शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है। उन्हें चंद्रमा से भी दूर और देवताओं से भी ऊंचे स्थान पर रहने वाला बताया गया है। पितरों की श्रेणी में मृत पूर्वजों, माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल होते हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों की श्रेणी में आते है।